Sunday, December 27, 2015

चाय वाला...


क्या बाबूजी चाय पियेंगे ?
लीजिए... पीजिए... मन
मन खुश हो जायेगा आपका...
क्यों भई क्या ऐसा इस चाय
में? साथ में बैठे एक आदमी
ने यूँ ही पूछ लिया... साहब...
इस प्याली में बस चाय नहीं है,
हैरान ? सुनो, इस प्याली में
मेरा आने वाला कल है,
और मेरा बिता कल और आज,
वहां, चाय की छलनी में अटका
पड़ा हैं, अभी थोड़ी देर में, कूड़े
के डब्बे में होगा... अदरक और
इलयाची नहीं, अपनी किस्मत को
कुटा है, मैंने इसमें... और बताओ,
मिठास कैसी है ? मस्त ना...
मेरा सुकून, ख्वाहिश, सपने, जो
बहुत मीठे हुआ करते थे, सब डाल
दिए है इस प्याली में... मैं रोया और
बहुत जला, जब जाके इस चाय को,
गर्माहट मिली है... इसका रंग देखिए...
मेरा रंग को फीका करता है, साहब,
आपको चाय मिली, मालिक को
पांच या सात रूपया... और मुझे?
मुझे फिर से ये खाली प्याली, जिसे
धो के और भर के दुसरे ग्राहक को देना है...
अरे! क्या हुआ? चाय ठंडी हो गई,
बात-बातों में, लायिए फिर से गर्म,
किये देता हूँ....
मनीष

Thursday, December 3, 2015

आज नहाने की जिद ना करो....


उसे छूने, उसके पास जाने से डर लगता है,
गोली मार दो, पर नहाने की मत कहो,
ना जाने क्यों नहाने से डर लगता है,
बाल्टी-डब्बा उठाने से डर लगता है,
बाथरूम की कुण्डी लगाने से डर लगता है,
पानी के साथ, दो मिनट बिताने से डर लगता है,
क्या करू, दुविधा में हूँ,
आपको सच बताने में डर लगता है,
इस बैन सरकार से कहो, की नहाना भी बैन करे,
बेवजह सी लगती नहाने की वजह, अब तो
पानी को पानी बुलाने से डर लगता है...
मनीष 

Sunday, November 15, 2015

'ल' से लखनऊ...

'ल' से लखनऊ....



दिल्ली का चावड़ी बाज़ार,
लाल किला या सदर बाज़ार,
लखनऊ का होना तो, मेरे
खयालों में भी ना था,
पिंजरा तोड़ ना सकीं, और
पिंजरा साथ ले उड़ी थी,
पर आज उसी में हूँ, फिर से
वो लखनऊ जाना, बस
उसे छू कर आने जैसा ही था,
किसे ? लखनऊ को नहीं,
शायद खुद को, लखनऊ का
तो '' भी ना देख पाई|



ये खुशियाँ....

भर ली, मैंने झोली में भर ली,
सब से चुरा के, छुपा के यूँ धर ली,
ये खुशियाँ.... ये खुशियाँ....
आंसू नहीं है, ये मोती है मेरे,
रोजाना तकिये के नीचे सोती है मेरे,
ये खुशियाँ....ये खुशियाँ....
ये खुशियाँ, मुझे मेरे गम से मिली है,
ये खुशियाँ, मुझे हम से मिली है,
जज्बातों को अपने बेचा है, मैंने और
सबसे महंगी दुकां, से खरीदी है मैंने,
ये खुशियाँ....ये खुशियाँ....


आँखों के आंसू...

इक आँख हंसती है, इक आँख रोती है,
पर आंसू तो दोनों से बहते है, जो
सपने तकिये के नीचे पड़े थे, वो
अब भी तकिये के नीचे रहते है....
उलझन मेरी सुलझी सी है, जिन्दा है
तन, आत्मा मर गयी है, पर
लोग कुछ उल्टा सा कहते है....

इक आँख हंसती है, इक आँख रोती है,
पर आंसू तो दोनों से बहते है.....








Friday, October 30, 2015

करवाचौथ की महागाथा.....

लगभग 26 सालों का ऐसा विवाहित जीवन रहा है मेरी माँ का, जो उसने एक सुहागन के रूप में जिए| 2003 में पिताजी चल बसे, उन 26 सालों में 26 बार मेरी माँ ने इस व्रत को रखा| करवाचौथ का ये दिन, जिस दिन माँ खूब सज धज के पूजा किया करती थी, फिर रात को चाँद देखने के बाद खाना खाया करती थी| बहुत ही ईमानदारी से पूरा करती थी, इस व्रत को| लेकिन, पिताजी तो चले ही गए, ये व्रत उन्हें रोक नहीं पाए| या ये हो सकता है, कि मेरी माँ ने ईमानदारी नहीं बरती| पर जहाँ मैं रहता हूँ, वह तो हर दो घर छोड़ कर एक विधवा तो मिली जाएँगी| शायद, उन्होंने भी कुछ ऐसा किया होगा कि उस व्रत का पुण उनके पति को नहीं मिल पाया होगा| दिल्ली विश्वविद्यालय, जहाँ कुछ दिनों से मैं रह रहा हूँ, वहां हर दूसरी महिला एक ऐसी सोच रखती है, जो महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ मर सकती है | उठते-बैठते वो देश को बदलने की बात करती है| परन्तु इस व्रत के प्रति उनकी भी उतनी ही श्रधा है, जितनी उस औरत की जो रोज तो अपने पति से पिटती है, उसकी गालियाँ सुनती है, पर अपने पति की लम्बी उम्र के लिए इस व्रत को जरुर रखती है| कल मार खायी थी, और आज कुछ भी ना खाएगी, क्यूंकि उस मारने वाले को जिन्दा रखना है| बॉलीवुड बड़ा ही मददगार है, इस दिन को लोगों की ज़िन्दगी में अहम् बनाने में| बाजारों में दिवाली जैसी धूम मची है, कुछ औरतें मेहंदी लगवा रही थी, कुछ लगा थी, दोनों ही भूखी है, व्रती है|

मनीष 

Thursday, August 6, 2015

भगवान का डर...

हाल ही में एक खबर पढ़ी, जिसके अनुसार आने वाले कुछ वर्षो में भारत की आबादी चीन से ज्यादा हो जायेंगी| मेरा मानना है कि भारत की आबादी कल भी चीन से ज्यादा थी, आज भी है और आने वाले कल की पुष्ठी तो हो ही चुकी है| दरअसल, हमने अपनी जनगणना में उन 33 करोड़ देवी-देवतओं को नहीं गिना, जो आम नागरिक से अधिक खाते है, उनसे अधिक सोना-चाँदी पहनते है, और रहने के लिए उनसे अधिक ज़मीन हथियाएँ हुए हैं| मज़े की बात ये है, कि वे केवल 33 करोड़ नहीं है, हरेक घर-परिवार में लगभग तीन या चार को वरीयता प्राप्त होती है, अब पुरे भारत में जहाँ 82 करोड़ के लगभग हिन्दू हैं, तो यह संख्या कितनी होगी ? वैसे जनसँख्या को नियंत्रित रखने में इस भगवान रूपी छलावे का बड़ा योगदान है| अक्सर अख़बार में पढने को मिलता है, कि फलां यात्रा में इतने मारे गये, भक्तों से भरी बस खाई में जा गिरी, किसी जत्थे पर आतंकी हमला या फलां जगह भगवान और अल्लाह के नाम पर दंगा, सैकड़ो मरे और हजारों घायल| और इस पर लोगों के तर्क कि ईश्वर के घर मरा है, स्वर्ग में जायेगा| किसी का एक पूरा परिवार ख़त्म हो जाता है, और हम फिर अपने अन्धविश्वास पर जरा सी भी आंच नहीं आने देते| कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र मेरे एक प्रश्न पर आपा खो बैठे,और  मेरा प्रश्न था, कि कभी आपने गंगा में पेशाब किया है? उन्हें अगर दोस्ती का लिहाज़ ना होता तो शायद मुझे मेरे इस अपराध के लिए मार ही देते, उनकी ये प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी, हमारा समाजीकरण और हमारे संस्कार हमे सिखाते है, कि अपने धर्म के लिए लड़ जाना और जरुरत पड़े तो मर भी जाना| आस्था और विश्वास कूट-कूट के हम में भरे जाते है, भला उन्हें आहत कैसे होने दे? फिर मैंने उनको समझाने का प्रयास किया और एक प्रश्न और दाग दिया, कि ये गंगा के घाटों पर जितने घर, दुकानें और धर्मशालाएं हैं, उनमें भी तो यही पानी नल और पाइप से पहुंचता है| क्या वहाँ आपकी आस्था बदल जाती है, जब आप उसी पानी को अपने पखाने में प्रयोग करते हो? और क्या आपका मूतना, उन कारखानों की गंदगी से भी जहरीला है, जो रोजाना गंगा में आ कर मिलती हैं? उन्होंने मुझे कुतर्की कह कर अपना पीछा छुटा लिया, तभी उन्ही के एक साथी का तर्क आया कि अगर भगवान का डर लोगों के मन से निकल गया तो इस धरती का अंत तय है| ये बात कुछ हद तक सही भी थी, पर मेरा सवाल था कि डर और सम्मान में कुछ तो अंतर होगा और हम धोखा किसे दे रहे है, खुद को ही ना? बिना तर्कों और इन्हीं अन्धविश्वासों के चलते ही न जाने कितने ही गरीब उन ठग पंडितो, पुजारियों और संतो का शिकार बनते है| घर में खाने को नही होता, पर मंदिर में घी का दिया जलता है, खुद के बच्चे नंगे और भूखे घूमते है, पर इन पंडितो को चप्पल, बनियान, कुर्ता-पजामा और रूपए दान दिए जाते है| लोगों के पास काम पर जाने के पैसे नही होते, पर हर महीने क़र्ज़ के पैसो से हरिद्वार या बालाजी जाते है| कितना बड़ा छल है ये और हम जानते हुए भी इस डर को ख़त्म नही कर सकते, दया आती है खुद पर ये जानकर कि हम कितने डरपोक और असहाय हैं ?

मनीष

Monday, July 20, 2015

मैं जानू ना.......

तेरे कानों के बुँदे,
तेरे गालों छू के,
क्या इशारे करे ?
मैं जानू ना.......
तेरा ये उड़ता आंचल,
तेरे नैनों का काजल,
क्यों पागल करे?
मैं जानू ना.......
तस्वीर से तेरी, यूँ तो,
मैं बातें रोज़ करता हूँ,
पर तुझसे क्या बोलूं ?
मैं जानू ना.......
मनीष 

Sunday, July 19, 2015

लेकिन क्यूँ ????

कुछ तुम चले,  कुछ हम चले,
पर न मिटे फ़ासले...
ना तुम रुके, ना हम रुके,
पर रुक गए सिलसिले....
ख्वाहिश थी, मिलने कि
पर मिल ना सके...
ज़िन्दगी भर का सपना ?
पर दो कदम चल ना सके...
रास्तें है, अलग और
अलग मंजिलें....
कुछ तुम चले,  कुछ हम चले,
पर न मिटे फ़ासले...
मनीष

Friday, July 17, 2015

बीता इतवार.....

ये जो इतवार बीता,
कुछ ऐसे यार बीता...
कि कुछ थकान सी है |
न चले हम, न गिरे हम,
ज़िन्दगी में ढलान सी है |
हवा थमी सी थी,
नैन सूखे थे, पर
गालोँ पर नमी सी थी,
वो इक़ पल जाने क्यूँ
बार-बार बीता ?
ये जो इतवार बीता,
कुछ ऐसे यार बीता...
मनीष 

Friday, July 3, 2015

जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं.....

लफ्जों  का दम घुट गया,
तेरा हुस्न देख कर, तो
ग्रन्थ-पोथियों ने भी,
खुद ख़ुशी कर ली,
तेरी तस्वीर में रंग भरू तो
भरू कैसे ? कि रंगों का रंग उड़
गया, तेरा रंग देख कर,
चाँद गिर गया,
तारे ढूंढने पर भी न मिले,
शाम भी भाग खड़ी हुई,
खुशबू जल गयी,
रौशनी बुझ गई,
फूलों का घमंड भी न बचा,
कलियाँ रो  पड़ी, तेरी हँसी देखकर,
दुनिया बची थी, बस
सोचा, ले चलू, पर
वो भी सर झुकाए खड़ी थी,
अब मुझे माफ़ कर दे,
तेरे जन्मदिन पर देने के लिए,
मुझे कुछ न मिला.......
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं.....
मनीष

Tuesday, June 23, 2015

सब कुछ देखा.... हमने

फूलों को रोते देखा,
आंसुओं को हँसते देखा,
लोगों की कब्रों पर, हमने,
लोगों को बसते देखा |
अपने पराये देखे,
कोसती, दुआएं देखी,
अपने बच्चों के खातिर,
बिकती, माएं देखी |
चोरों, को फलते देखा,
सच्चों को लुटते देखा,
जीने, के सपने का,
दम घुटते देखा |
सब कुछ देखा.... हमने
मनीष

Thursday, June 11, 2015

इंसानियत की कीमत....

बेची जब सस्ते में इंसानियत,
खरीदार सौ में से चार निकले...
आगे निकले तो तुम निकले,
हम तो यार बेकार निकले...
हम रो देते थे, तेरे गम से,
तुमने तो मेरे आँसू ही बेच डाले,
और हमे इल्म भी ना था, कि कब
तुम उन्हें लेकर बाज़ार निकले...
बेची जब सस्ते में इंसानियत,
खरीदार सौ में से चार निकले...
मनीष




Wednesday, June 10, 2015

हक़ीकत तेरी....

हकीक़त तेरी ये हकीक़त नहीं,
ये जानकर परेशान हूँ....

काली सी, पीली सी,
बेरंग.... रंगीली सी... जिंदगी,
चुप-चाप सी, चिल्लाती,
बेसुर.... सुरीली सी... जिंदगी,
साफ़ सी,.... धुंधली सी,
दूर हो कर, आ मिली... जिंदगी,
मेरी होकर.... किसी और की,
मैंने खो कर, पा ली... जिंदगी....

झूठ बोला नहीं, सच बताया नहीं,
इस पहेली से हैरान हूँ,

हकीक़त तेरी ये हकीक़त नहीं,
ये जानकर परेशान हूँ....
मनीष



Saturday, June 6, 2015

मूतने का चस्का

पसीने से तेल बना के, चमड़ी की बाती कर ली,
और जला के खुद को हमने जिंदगी बसर कर ली.....
किवाड़े, खिड़कियाँ, और दीवारे नहीं है,
सब खुला पड़ा है, कोई चौकीदारें नहीं है...
यूँ बेखबर से, कुछ ढूँढने मत आया करो,
मेरा परिवार सोता है, इस फूटपाथ पर....
तुम यहाँ बार-बार मूतने मत आया करो|
ये बिछी टाईले ही कमरे है हमारे,
इन्ही पर खा कर, चुप चाप सो जाते है...
थके होते है, दिन भर की दिहाड़ी से,
हमें बेवजह जगाने मत आया करो...
मेरा परिवार सोता है, इस फूटपाथ पर....
तुम यहाँ बार-बार मूतने मत आया करो|
थोड़ी ही सही, तुम से कम ही सही,
इज्जत हम भी रखते है, तुम्हारे इस  समाज में,
बेटियां हमारी मासूम है, मायूस है,
पर मजबूर नहीं.......
तुम इनके फट्टे चीथड़ो से झाँकने मत आया करो,
मेरा परिवार सोता है, इस फूटपाथ पर....
तुम यहाँ बार-बार मूतने मत आया करो|
जिस तरफ की हवा चली, उस ओर बह जाते है,
तुम्हारे हर जुर्म को यूँ ही सह जाते है,
जलाने का रिवाज़ हमारे यहाँ भी है,
मगर मरने  के बाद....
तुम हमें जिन्दा जलाने मत आया करो.
मेरा परिवार सोता है, इस फूटपाथ पर....
तुम यहाँ बार-बार मूतने मत आया करो|
मनीष 

Friday, May 29, 2015

...और उसने मरने में देर न की |

मुझे उसके इतनी जल्दी मरने की उम्मीद न थी| हाँ, उसका कम उम्र में मरना तो उसी दिन तय हो गया था, जब उसने जन्म लिया था| उसके माँ-बाप हमारे गाँव के खेतो में काम करके अपना जीवन काट रहे थे| वो लोग बिहार से यहाँ आये थे| अब दिल्ली के किसान खेतो में काम करना कहाँ पसंद करते हैं, नई-नई गाड़ियाँ खरीदने से  ही फुर्सत नहीं है, उन्हें | यही उसका जन्म हुआ था, जन्म देने दो दिन बाद ही उसकी माँ (माया) खेतो में काम करने लगी थी| बच्चे का नाम बलराम रखा  गया, जिसे माया या तो पेड़ पर बने झूले पर सुला देती या अपनी बेटी रानी को दे देती, ध्यान रखने के लिए| रानी खुद तीन साल की थी, बड़ी छोटी उम्र में ही वो एक माँ की जिम्मेदारियां निभाने लगी थी| वक़्त बीतता गया, बलराम बड़ी तेज़ी से बढ़ने लगा, वो अपनी उम्र के बाकी सभी बच्चों से बहुत अलग था| उसे ठंड, गर्मी या बारिश के प्रभाव से शायद ही कभी बीमार देखा हो| मिट्टी में खेल-खेल कर न जाने कब वो खेतो में काम करने लगा| फिर शाम में अपने पिता के साथ बाज़ार जाता, सब्जी बेचने| वो स्कूल नहीं जाता था, पर उसका हिसाब बड़ा सटीक था| वो किसी खेल अकादमी में भी नहीं जाता था, पर सबसे तेज़ दौड़ता था,और रात को खेतो में पानी भी दे देता था, बिना किसी डर के| जब हमारे बच्चे स्कूल जाने की तैयारी करते थे, वो सब्जी मंडी से वापिस आ चुका होता था| हम अपने बच्चों को उससे दूर ही रखते थे, उसे बोलने की तमीज न थी, न अच्छे कपडे पहनता था| महज छह वर्ष की उम्र में गुटका और पान मसाला चबाने लगा था| उस साल उनकी फसल अच्छी नहीं हुई, बलराम ने एक टेंट हाउस में काम करना शुरू कर दिया, दिन में टेंट लगाता और शाम को वही वेटर का काम करता| वही पर उसकी उम्र के बच्चे डी.जे. पर नाचते, मिक्की माउस पर कूदते और आराम से कुर्सी पर बैठकर आइस क्रीम खाते, जो बलराम उन्हें ला कर देता था| बड़ा कठोर दिल था बलराम का, जो उसने इतनी जल्दी अपने बचपन का गला घोट दिया था, या उसमे हमारी कोई चुक थी? एक दिन सुनने में आया की बलराम एक शादी के प्रोग्राम में चोरी करते हुए पकड़ा गया, कॉफ़ी का एक पैकेट चुराया था उसने| लोगों ने उसे खूब पीटा, उन्होंने भी मारा जो खुद थोड़ी देर पहले पॉलिथीन में सब्जी चुरा के ले गये थे| उसे कोई भी पीट सकता, क्योंकि नाम बलराम रखने से किसी के पास बल नहीं आ जाता, वो तो विरासत में मिलता है| इसके बाद वो एक कोने में पड़ा रोता रहा, किसी ने पूछ लिया कि तूने चोरी क्यों की? बलराम ने कहा कि मालिक कहता है, ऐसा करने को| ये सुन कर उसके मालिक ने बलराम के पेट में कई लाते जमा दी,  और बलराम ने मरने में देर न की, वो शायद बहुत थक चुका था, इस समाज से|
मनीष 

Tuesday, May 26, 2015

जो बिन दौड़े, हार गये |

बारहवीं की परीक्षा का परिणाम घोषित होने के उपरांत किसी घर में पार्टियाँ हुई होगी, तो कहीं पूरा परिवार खाना छोड़े बैठा रहा होगा | किसी को अपने प्राप्तांको में सुनहरा भविष्य दिखा होगा, तो किसी के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग गया होगा| कुछ दिनों में मीडिया  के माध्यम से सभी कॉलेजों का प्रचार शुरू भी हो जायेगा, कौन से कॉलेज में कौन सी हस्ती पढ़ी हैं? कौन से कॉलेज में क्या खूबियाँ हैं? कौन सा कोर्स किस कॉलेज में पढ़ाया जाता हैं? यहाँ तक छाप देंगें कि कौन सा सिनेमा या शौपिंग मॉल किस कॉलेज के पास हैं ? पर कोई अख़बार ये नहीं छापेगा कि ये कॉलेज कुछ खास लोगों या एक विशेष वर्ग के लिए ही खुले हैं| सभी छात्र, छात्राएं और उनके माता-पिता अब तक ना जाने कौन-कौन से सपने अपनी आँखों सजा चुके होंगे| पर वो ये भूल रहे हैं की दिल्ली यूनिवर्सिटी बस अमीरों की यूनिवर्सिटी है| अगर आपका बच्चा किसी वर्ल्ड स्कूल में पढ़ा है, आपने उसको प्रतिदिन दो या तीन अलग-अलग महंगी कोचिंग दिलाई हैं और इन्ही की तरज पर उसने 90% या 95 % अंक प्राप्त किये हैं दूसरे शब्दों में अगर आप अमीर है तो आप अपने बच्चे को यहाँ पढ़ा सकते हैं, नहीं तो इतना जान लीजिये कि आप उनको उस दौड़ के लिए तैयार कर रहे हैं, जिसमे वो दावेदार ही नहीं हैं| मतलब वे बिन दौड़े ही हार चुके हैं|
मनीष 

Saturday, May 23, 2015

तनु, मनु और वो

कितना  आसान जान पड़ा एक कॉलेज की छात्रा को चालीस वर्ष के एक डॉक्टर द्वारा प्रेम सम्बन्ध में फांसना महज कान के बुँदे उपहार स्वरुप देकर| मैं ये नहीं कहता, कि प्रेम उम्र जैसे तुच्छ पैमानों का मोहताज है, परन्तु इस प्यार में डॉक्टर साहब का स्वार्थ साफ़ झलक रहा था| तनु  के व्यवहार को न बदल सके, या यूँ कहे की उसे अपनी उंगलियों पर न नचा सके तो कुसुम जिसकी सूरत तनु से मिलती थी में वो मनचाहा व्यवहार ढूँढ लिया| फिर क्या था, तनु का चाहे जो हो| दो लड़कियां जो अपनी-अपनी लड़ाई बखूबी लड़ रही थी, कुसुम एक खिलाडी, बीच सड़क में उसे एक बदतमीज़ लड़के की धुनाई करने में जरा भी हिचक न हुई| वही दूसरी ओर तनु महज एक तोलिए में घरवालो और रिश्तेदारों के बीच में आ बैठी| कुसुम अकेले ही अपने प्यार के लिए अपने घरवालो से भिड गई, वही तनु ने एक रिक्शावाले को गले लगा कर सबको बता दिया कि दोस्ती ऊँच-नीच से बहुत ऊपर है| पर ऐसा क्या था, कि दोनों ही आखिर में हार गयी वो उस आदमी के लिए जो न तो लड़ सका और न ही एक जगह टिक सका| पुरुषप्रधान देश में पुरुष के खुश होने मान लिया जाता है कि सब खुश हैं| डॉक्टर साहब के दोनों हाथों में लड्डू थे, पर उन्हें कुसुम मिलती तो तनु दुखी होती और तनु मिलती तो कुसुम को रोना पड़ता| एक सवाल और भी है कि कुसुम में ऐसी क्या कमी थी कि उसका रिश्ता तक़रीबन चालीस वर्ष के राजा अवस्थी से किया गया| वकील साहब का डायलाँग वो "कन्धा जाति" वाला, बहुत सवाल खड़े करता है, क्या नारी दुसरे पर ही निर्भर है? क्या नारी अपनी लड़ाई खुद नहीं लड़ सकती? उसे पुरुषों के सहयोग से ही न्याय मिलेगा? एक मुददा ओर भी था, जिसमें डॉक्टर साहब के मित्र जस्सी को उनकी पत्नी बस सच इसलिए नहीं बता रही थी कि उनके पति की मर्दानगी पर ठेस पहुँच जाती, यहाँ भी पति की ख़ुशी अहम थी| कुसुम ने लड़ाई लड़ी, शादी के मंडप तक पहुँची, पर शादी न कर सकी, वो वहाँ भी आने वाली हर मुसीबत से लड़ने को तैयार थी, गांववालों का, समाज का, अपने भविष्य का, किसी का न डर था और न चिंता.... ये काम भी भारत की बेटी ही कर सकती है| बहुत कुछ नया था फिल्म में, बस एक चीज़ को छोड़ कर, बलिदान भारतीय नारी ही करेंगी, अपने प्यार के लिए और पति परमेश्वर के लिए|
मनीष