Saturday, June 6, 2015

मूतने का चस्का

पसीने से तेल बना के, चमड़ी की बाती कर ली,
और जला के खुद को हमने जिंदगी बसर कर ली.....
किवाड़े, खिड़कियाँ, और दीवारे नहीं है,
सब खुला पड़ा है, कोई चौकीदारें नहीं है...
यूँ बेखबर से, कुछ ढूँढने मत आया करो,
मेरा परिवार सोता है, इस फूटपाथ पर....
तुम यहाँ बार-बार मूतने मत आया करो|
ये बिछी टाईले ही कमरे है हमारे,
इन्ही पर खा कर, चुप चाप सो जाते है...
थके होते है, दिन भर की दिहाड़ी से,
हमें बेवजह जगाने मत आया करो...
मेरा परिवार सोता है, इस फूटपाथ पर....
तुम यहाँ बार-बार मूतने मत आया करो|
थोड़ी ही सही, तुम से कम ही सही,
इज्जत हम भी रखते है, तुम्हारे इस  समाज में,
बेटियां हमारी मासूम है, मायूस है,
पर मजबूर नहीं.......
तुम इनके फट्टे चीथड़ो से झाँकने मत आया करो,
मेरा परिवार सोता है, इस फूटपाथ पर....
तुम यहाँ बार-बार मूतने मत आया करो|
जिस तरफ की हवा चली, उस ओर बह जाते है,
तुम्हारे हर जुर्म को यूँ ही सह जाते है,
जलाने का रिवाज़ हमारे यहाँ भी है,
मगर मरने  के बाद....
तुम हमें जिन्दा जलाने मत आया करो.
मेरा परिवार सोता है, इस फूटपाथ पर....
तुम यहाँ बार-बार मूतने मत आया करो|
मनीष 

2 comments:

  1. बहुत ही ज़्यादा अच्छी कविता लिखी है … समाज में व्याप्त वर्ग द्वन्द को आखों के सामने ला देती है ये कविता।
    फूटपाथ के सामजिक जीवन के यथार्थ का सुन्दर शब्दों में चित्रण।

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