कितना आसान जान पड़ा एक कॉलेज की छात्रा को चालीस वर्ष के एक डॉक्टर द्वारा प्रेम सम्बन्ध में फांसना महज कान के बुँदे उपहार स्वरुप देकर| मैं ये नहीं कहता, कि प्रेम उम्र जैसे तुच्छ पैमानों का मोहताज है, परन्तु इस प्यार में डॉक्टर साहब का स्वार्थ साफ़ झलक रहा था| तनु के व्यवहार को न बदल सके, या यूँ कहे की उसे अपनी उंगलियों पर न नचा सके तो कुसुम जिसकी सूरत तनु से मिलती थी में वो मनचाहा व्यवहार ढूँढ लिया| फिर क्या था, तनु का चाहे जो हो| दो लड़कियां जो अपनी-अपनी लड़ाई बखूबी लड़ रही थी, कुसुम एक खिलाडी, बीच सड़क में उसे एक बदतमीज़ लड़के की धुनाई करने में जरा भी हिचक न हुई| वही दूसरी ओर तनु महज एक तोलिए में घरवालो और रिश्तेदारों के बीच में आ बैठी| कुसुम अकेले ही अपने प्यार के लिए अपने घरवालो से भिड गई, वही तनु ने एक रिक्शावाले को गले लगा कर सबको बता दिया कि दोस्ती ऊँच-नीच से बहुत ऊपर है| पर ऐसा क्या था, कि दोनों ही आखिर में हार गयी वो उस आदमी के लिए जो न तो लड़ सका और न ही एक जगह टिक सका| पुरुषप्रधान देश में पुरुष के खुश होने मान लिया जाता है कि सब खुश हैं| डॉक्टर साहब के दोनों हाथों में लड्डू थे, पर उन्हें कुसुम मिलती तो तनु दुखी होती और तनु मिलती तो कुसुम को रोना पड़ता| एक सवाल और भी है कि कुसुम में ऐसी क्या कमी थी कि उसका रिश्ता तक़रीबन चालीस वर्ष के राजा अवस्थी से किया गया| वकील साहब का डायलाँग वो "कन्धा जाति" वाला, बहुत सवाल खड़े करता है, क्या नारी दुसरे पर ही निर्भर है? क्या नारी अपनी लड़ाई खुद नहीं लड़ सकती? उसे पुरुषों के सहयोग से ही न्याय मिलेगा? एक मुददा ओर भी था, जिसमें डॉक्टर साहब के मित्र जस्सी को उनकी पत्नी बस सच इसलिए नहीं बता रही थी कि उनके पति की मर्दानगी पर ठेस पहुँच जाती, यहाँ भी पति की ख़ुशी अहम थी| कुसुम ने लड़ाई लड़ी, शादी के मंडप तक पहुँची, पर शादी न कर सकी, वो वहाँ भी आने वाली हर मुसीबत से लड़ने को तैयार थी, गांववालों का, समाज का, अपने भविष्य का, किसी का न डर था और न चिंता.... ये काम भी भारत की बेटी ही कर सकती है| बहुत कुछ नया था फिल्म में, बस एक चीज़ को छोड़ कर, बलिदान भारतीय नारी ही करेंगी, अपने प्यार के लिए और पति परमेश्वर के लिए|
मनीष
मनीष
nice
ReplyDeletethanks
Deletenice
ReplyDelete