Thursday, August 6, 2015

भगवान का डर...

हाल ही में एक खबर पढ़ी, जिसके अनुसार आने वाले कुछ वर्षो में भारत की आबादी चीन से ज्यादा हो जायेंगी| मेरा मानना है कि भारत की आबादी कल भी चीन से ज्यादा थी, आज भी है और आने वाले कल की पुष्ठी तो हो ही चुकी है| दरअसल, हमने अपनी जनगणना में उन 33 करोड़ देवी-देवतओं को नहीं गिना, जो आम नागरिक से अधिक खाते है, उनसे अधिक सोना-चाँदी पहनते है, और रहने के लिए उनसे अधिक ज़मीन हथियाएँ हुए हैं| मज़े की बात ये है, कि वे केवल 33 करोड़ नहीं है, हरेक घर-परिवार में लगभग तीन या चार को वरीयता प्राप्त होती है, अब पुरे भारत में जहाँ 82 करोड़ के लगभग हिन्दू हैं, तो यह संख्या कितनी होगी ? वैसे जनसँख्या को नियंत्रित रखने में इस भगवान रूपी छलावे का बड़ा योगदान है| अक्सर अख़बार में पढने को मिलता है, कि फलां यात्रा में इतने मारे गये, भक्तों से भरी बस खाई में जा गिरी, किसी जत्थे पर आतंकी हमला या फलां जगह भगवान और अल्लाह के नाम पर दंगा, सैकड़ो मरे और हजारों घायल| और इस पर लोगों के तर्क कि ईश्वर के घर मरा है, स्वर्ग में जायेगा| किसी का एक पूरा परिवार ख़त्म हो जाता है, और हम फिर अपने अन्धविश्वास पर जरा सी भी आंच नहीं आने देते| कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र मेरे एक प्रश्न पर आपा खो बैठे,और  मेरा प्रश्न था, कि कभी आपने गंगा में पेशाब किया है? उन्हें अगर दोस्ती का लिहाज़ ना होता तो शायद मुझे मेरे इस अपराध के लिए मार ही देते, उनकी ये प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी, हमारा समाजीकरण और हमारे संस्कार हमे सिखाते है, कि अपने धर्म के लिए लड़ जाना और जरुरत पड़े तो मर भी जाना| आस्था और विश्वास कूट-कूट के हम में भरे जाते है, भला उन्हें आहत कैसे होने दे? फिर मैंने उनको समझाने का प्रयास किया और एक प्रश्न और दाग दिया, कि ये गंगा के घाटों पर जितने घर, दुकानें और धर्मशालाएं हैं, उनमें भी तो यही पानी नल और पाइप से पहुंचता है| क्या वहाँ आपकी आस्था बदल जाती है, जब आप उसी पानी को अपने पखाने में प्रयोग करते हो? और क्या आपका मूतना, उन कारखानों की गंदगी से भी जहरीला है, जो रोजाना गंगा में आ कर मिलती हैं? उन्होंने मुझे कुतर्की कह कर अपना पीछा छुटा लिया, तभी उन्ही के एक साथी का तर्क आया कि अगर भगवान का डर लोगों के मन से निकल गया तो इस धरती का अंत तय है| ये बात कुछ हद तक सही भी थी, पर मेरा सवाल था कि डर और सम्मान में कुछ तो अंतर होगा और हम धोखा किसे दे रहे है, खुद को ही ना? बिना तर्कों और इन्हीं अन्धविश्वासों के चलते ही न जाने कितने ही गरीब उन ठग पंडितो, पुजारियों और संतो का शिकार बनते है| घर में खाने को नही होता, पर मंदिर में घी का दिया जलता है, खुद के बच्चे नंगे और भूखे घूमते है, पर इन पंडितो को चप्पल, बनियान, कुर्ता-पजामा और रूपए दान दिए जाते है| लोगों के पास काम पर जाने के पैसे नही होते, पर हर महीने क़र्ज़ के पैसो से हरिद्वार या बालाजी जाते है| कितना बड़ा छल है ये और हम जानते हुए भी इस डर को ख़त्म नही कर सकते, दया आती है खुद पर ये जानकर कि हम कितने डरपोक और असहाय हैं ?

मनीष