Friday, May 29, 2015

...और उसने मरने में देर न की |

मुझे उसके इतनी जल्दी मरने की उम्मीद न थी| हाँ, उसका कम उम्र में मरना तो उसी दिन तय हो गया था, जब उसने जन्म लिया था| उसके माँ-बाप हमारे गाँव के खेतो में काम करके अपना जीवन काट रहे थे| वो लोग बिहार से यहाँ आये थे| अब दिल्ली के किसान खेतो में काम करना कहाँ पसंद करते हैं, नई-नई गाड़ियाँ खरीदने से  ही फुर्सत नहीं है, उन्हें | यही उसका जन्म हुआ था, जन्म देने दो दिन बाद ही उसकी माँ (माया) खेतो में काम करने लगी थी| बच्चे का नाम बलराम रखा  गया, जिसे माया या तो पेड़ पर बने झूले पर सुला देती या अपनी बेटी रानी को दे देती, ध्यान रखने के लिए| रानी खुद तीन साल की थी, बड़ी छोटी उम्र में ही वो एक माँ की जिम्मेदारियां निभाने लगी थी| वक़्त बीतता गया, बलराम बड़ी तेज़ी से बढ़ने लगा, वो अपनी उम्र के बाकी सभी बच्चों से बहुत अलग था| उसे ठंड, गर्मी या बारिश के प्रभाव से शायद ही कभी बीमार देखा हो| मिट्टी में खेल-खेल कर न जाने कब वो खेतो में काम करने लगा| फिर शाम में अपने पिता के साथ बाज़ार जाता, सब्जी बेचने| वो स्कूल नहीं जाता था, पर उसका हिसाब बड़ा सटीक था| वो किसी खेल अकादमी में भी नहीं जाता था, पर सबसे तेज़ दौड़ता था,और रात को खेतो में पानी भी दे देता था, बिना किसी डर के| जब हमारे बच्चे स्कूल जाने की तैयारी करते थे, वो सब्जी मंडी से वापिस आ चुका होता था| हम अपने बच्चों को उससे दूर ही रखते थे, उसे बोलने की तमीज न थी, न अच्छे कपडे पहनता था| महज छह वर्ष की उम्र में गुटका और पान मसाला चबाने लगा था| उस साल उनकी फसल अच्छी नहीं हुई, बलराम ने एक टेंट हाउस में काम करना शुरू कर दिया, दिन में टेंट लगाता और शाम को वही वेटर का काम करता| वही पर उसकी उम्र के बच्चे डी.जे. पर नाचते, मिक्की माउस पर कूदते और आराम से कुर्सी पर बैठकर आइस क्रीम खाते, जो बलराम उन्हें ला कर देता था| बड़ा कठोर दिल था बलराम का, जो उसने इतनी जल्दी अपने बचपन का गला घोट दिया था, या उसमे हमारी कोई चुक थी? एक दिन सुनने में आया की बलराम एक शादी के प्रोग्राम में चोरी करते हुए पकड़ा गया, कॉफ़ी का एक पैकेट चुराया था उसने| लोगों ने उसे खूब पीटा, उन्होंने भी मारा जो खुद थोड़ी देर पहले पॉलिथीन में सब्जी चुरा के ले गये थे| उसे कोई भी पीट सकता, क्योंकि नाम बलराम रखने से किसी के पास बल नहीं आ जाता, वो तो विरासत में मिलता है| इसके बाद वो एक कोने में पड़ा रोता रहा, किसी ने पूछ लिया कि तूने चोरी क्यों की? बलराम ने कहा कि मालिक कहता है, ऐसा करने को| ये सुन कर उसके मालिक ने बलराम के पेट में कई लाते जमा दी,  और बलराम ने मरने में देर न की, वो शायद बहुत थक चुका था, इस समाज से|
मनीष 

Tuesday, May 26, 2015

जो बिन दौड़े, हार गये |

बारहवीं की परीक्षा का परिणाम घोषित होने के उपरांत किसी घर में पार्टियाँ हुई होगी, तो कहीं पूरा परिवार खाना छोड़े बैठा रहा होगा | किसी को अपने प्राप्तांको में सुनहरा भविष्य दिखा होगा, तो किसी के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग गया होगा| कुछ दिनों में मीडिया  के माध्यम से सभी कॉलेजों का प्रचार शुरू भी हो जायेगा, कौन से कॉलेज में कौन सी हस्ती पढ़ी हैं? कौन से कॉलेज में क्या खूबियाँ हैं? कौन सा कोर्स किस कॉलेज में पढ़ाया जाता हैं? यहाँ तक छाप देंगें कि कौन सा सिनेमा या शौपिंग मॉल किस कॉलेज के पास हैं ? पर कोई अख़बार ये नहीं छापेगा कि ये कॉलेज कुछ खास लोगों या एक विशेष वर्ग के लिए ही खुले हैं| सभी छात्र, छात्राएं और उनके माता-पिता अब तक ना जाने कौन-कौन से सपने अपनी आँखों सजा चुके होंगे| पर वो ये भूल रहे हैं की दिल्ली यूनिवर्सिटी बस अमीरों की यूनिवर्सिटी है| अगर आपका बच्चा किसी वर्ल्ड स्कूल में पढ़ा है, आपने उसको प्रतिदिन दो या तीन अलग-अलग महंगी कोचिंग दिलाई हैं और इन्ही की तरज पर उसने 90% या 95 % अंक प्राप्त किये हैं दूसरे शब्दों में अगर आप अमीर है तो आप अपने बच्चे को यहाँ पढ़ा सकते हैं, नहीं तो इतना जान लीजिये कि आप उनको उस दौड़ के लिए तैयार कर रहे हैं, जिसमे वो दावेदार ही नहीं हैं| मतलब वे बिन दौड़े ही हार चुके हैं|
मनीष 

Saturday, May 23, 2015

तनु, मनु और वो

कितना  आसान जान पड़ा एक कॉलेज की छात्रा को चालीस वर्ष के एक डॉक्टर द्वारा प्रेम सम्बन्ध में फांसना महज कान के बुँदे उपहार स्वरुप देकर| मैं ये नहीं कहता, कि प्रेम उम्र जैसे तुच्छ पैमानों का मोहताज है, परन्तु इस प्यार में डॉक्टर साहब का स्वार्थ साफ़ झलक रहा था| तनु  के व्यवहार को न बदल सके, या यूँ कहे की उसे अपनी उंगलियों पर न नचा सके तो कुसुम जिसकी सूरत तनु से मिलती थी में वो मनचाहा व्यवहार ढूँढ लिया| फिर क्या था, तनु का चाहे जो हो| दो लड़कियां जो अपनी-अपनी लड़ाई बखूबी लड़ रही थी, कुसुम एक खिलाडी, बीच सड़क में उसे एक बदतमीज़ लड़के की धुनाई करने में जरा भी हिचक न हुई| वही दूसरी ओर तनु महज एक तोलिए में घरवालो और रिश्तेदारों के बीच में आ बैठी| कुसुम अकेले ही अपने प्यार के लिए अपने घरवालो से भिड गई, वही तनु ने एक रिक्शावाले को गले लगा कर सबको बता दिया कि दोस्ती ऊँच-नीच से बहुत ऊपर है| पर ऐसा क्या था, कि दोनों ही आखिर में हार गयी वो उस आदमी के लिए जो न तो लड़ सका और न ही एक जगह टिक सका| पुरुषप्रधान देश में पुरुष के खुश होने मान लिया जाता है कि सब खुश हैं| डॉक्टर साहब के दोनों हाथों में लड्डू थे, पर उन्हें कुसुम मिलती तो तनु दुखी होती और तनु मिलती तो कुसुम को रोना पड़ता| एक सवाल और भी है कि कुसुम में ऐसी क्या कमी थी कि उसका रिश्ता तक़रीबन चालीस वर्ष के राजा अवस्थी से किया गया| वकील साहब का डायलाँग वो "कन्धा जाति" वाला, बहुत सवाल खड़े करता है, क्या नारी दुसरे पर ही निर्भर है? क्या नारी अपनी लड़ाई खुद नहीं लड़ सकती? उसे पुरुषों के सहयोग से ही न्याय मिलेगा? एक मुददा ओर भी था, जिसमें डॉक्टर साहब के मित्र जस्सी को उनकी पत्नी बस सच इसलिए नहीं बता रही थी कि उनके पति की मर्दानगी पर ठेस पहुँच जाती, यहाँ भी पति की ख़ुशी अहम थी| कुसुम ने लड़ाई लड़ी, शादी के मंडप तक पहुँची, पर शादी न कर सकी, वो वहाँ भी आने वाली हर मुसीबत से लड़ने को तैयार थी, गांववालों का, समाज का, अपने भविष्य का, किसी का न डर था और न चिंता.... ये काम भी भारत की बेटी ही कर सकती है| बहुत कुछ नया था फिल्म में, बस एक चीज़ को छोड़ कर, बलिदान भारतीय नारी ही करेंगी, अपने प्यार के लिए और पति परमेश्वर के लिए|
मनीष