Sunday, November 15, 2015

'ल' से लखनऊ...

'ल' से लखनऊ....



दिल्ली का चावड़ी बाज़ार,
लाल किला या सदर बाज़ार,
लखनऊ का होना तो, मेरे
खयालों में भी ना था,
पिंजरा तोड़ ना सकीं, और
पिंजरा साथ ले उड़ी थी,
पर आज उसी में हूँ, फिर से
वो लखनऊ जाना, बस
उसे छू कर आने जैसा ही था,
किसे ? लखनऊ को नहीं,
शायद खुद को, लखनऊ का
तो '' भी ना देख पाई|



ये खुशियाँ....

भर ली, मैंने झोली में भर ली,
सब से चुरा के, छुपा के यूँ धर ली,
ये खुशियाँ.... ये खुशियाँ....
आंसू नहीं है, ये मोती है मेरे,
रोजाना तकिये के नीचे सोती है मेरे,
ये खुशियाँ....ये खुशियाँ....
ये खुशियाँ, मुझे मेरे गम से मिली है,
ये खुशियाँ, मुझे हम से मिली है,
जज्बातों को अपने बेचा है, मैंने और
सबसे महंगी दुकां, से खरीदी है मैंने,
ये खुशियाँ....ये खुशियाँ....


आँखों के आंसू...

इक आँख हंसती है, इक आँख रोती है,
पर आंसू तो दोनों से बहते है, जो
सपने तकिये के नीचे पड़े थे, वो
अब भी तकिये के नीचे रहते है....
उलझन मेरी सुलझी सी है, जिन्दा है
तन, आत्मा मर गयी है, पर
लोग कुछ उल्टा सा कहते है....

इक आँख हंसती है, इक आँख रोती है,
पर आंसू तो दोनों से बहते है.....