Saturday, June 3, 2017

यादों की खुरचन.....

अब... जब तुमने उन तस्वीरों को डिलीट कर ही दिया है, तो ऐसे मुँह फुला कर क्यों बैठे हो ?
बस ऐसे ही... सोच रहा हूँ, मैं कितनी जल्दी गलत फ़ैसले ले लेता हूँ...
बहुत सही... ये सोचने की जरुरत तो है तुम्हें... वैसे अब कहानी का क्या करोगे... डार्लिंग ?
हाहाहा... खूब याद दिलाया... पर हर कहानी पूरी हो, ये तो जरुरी नही ?
पर... वो तुम्हारा सपना बन चुकी थी.... उसका क्या?
सपने बदल जाते है...

कितने सपने बदलोंगे मनीष ? और ऐसा क्या सपना, जो दो दिन भी टिक सकें? तुम ऐसे ना थे...
तुम्हें इन दिनों पूरा उत्तरांचल और हिमांचल घूमना और लिखना था बस...
फिर किसी घटिया से रिसर्च के लिए वो छोड़ दिया,
 उस रिसर्च को घटिया मत कहो प्लीज...
क्यों ना कहूँ? आर यू सीरियस फॉर दैट रिसर्च ?
ऑफ़ कोर्स... आई एम...
कहानी के लिए सीरियस नही थे?
........
चुप क्यों हो बोलो?
हाँ था...
पूरी हुई ?
नहीं....  पर इसका यह मतलब बिलकुल नही है कि वो रिसर्च भी पूरा नही होगा...
मुझे तो ऐसा ही लगता है....
ओके.... जैसी तुम्हारी मर्जी... एम एम लीविंग...
वेयर?
घर जाना है, मुझे...
प्लीज... कुछ देर रुक जाओ... बातें करनी है....
अरे वाह.... आज तुम्हे बातें करनी है... अच्छा लगा सुन के....
ताना मत मारो... कहानी अगले साल पूरी होगी...
कैसे ?
वहाँ जाकर.... हर पल को दोबारा जी कर... पुरे ट्रिप को वैसे ही जी कर...
ये पॉसिबल है?
नहीं.... पर एक नया सपना, तो पाल ही सकता हूँ, एक साल के लिए ही सही... ये चार दिन का तो ना होगा....

Friday, December 9, 2016

शिक्षा और ज्ञान के मायने

यह मानना कि जो बच्चा स्कूल में जाता है, केवल वही जानता है, समझता है या उसी के पास ज्ञान होता है, ये एक प्रकार का पूर्वाग्रह है या ये हो सकता है कि हमने ज्ञान को सही ढंग से परिभाषित नही किया है| अगर देखें कि कॉलोनी में जो बच्चा अख़बार डाल कर जाता है, उसे ये पता होता है कि कौन से घर में कौन सा अख़बार डालना है, वो सैकड़ों घरों में सही अख़बार डालकर जाता है| इतना ही नहीं, जो कॉलोनी में चार या पाँच मंजिला मकान है, उनमें वो बच्चा  बिना किसी बल का सिद्धांत पढ़े, चलती साइकिल से रबड़ में लपेट कर अख़बार को सही मंजिल तक पहुंचा देता है|  मतलब उसे कैसे पता चलता है कि पहली मंजिल पर अख़बार डालने के लिए कितना बल लगता है और पांचवी मंजिल तक कितना? दूसरा बच्चा (जमूरे) को आपने किसी न किसी लाल बत्ती पर करतब करते हुए देखा होगा उसे अपने अंदाज़े से ही पता होता है, कि बत्ती कब खुलेगी और उसी के हिसाब से वो अपना करतब करता है और इतना टाइम भी बचा लेता है कि उन रुकी गाड़ियों के मालिकों से पैसा भी मांग सकें| एक अन्य उदाहरण में भीख मांगने वाला बच्चा भी पहले से जान जाता है कि कौन उसको भीख दे सकता है और कौन नहीं देगा| ये व्यवहार जाने और समझने के लिए स्कूल के बच्चें मनोविज्ञान और ज्योतिषशास्त्र  पढ़ते है लेकिन ये गरीब बच्चें सब कुछ अपनी इस दुनिया और रोजमर्रा के अनुभवों से सीखते है | एक और बच्चा, जो कूड़ा उठाता है, उसको पता है कि किस चीज़ को उठाने से पैसे मिलेंगे और किस चीज़ को नहीं उठाना है जबकि स्कूल में बच्चों को ये समझाने के लिए हरा डिब्बा, नीला डिब्बा और काला डिब्बा रखना पड़ता है, ये ऐसे उदाहरण हैं, जिन्हें  हम  रोजाना अपने जीवन में घटित होते देखते हैं| परन्तु इन्हें ज्ञान की परिधि से बाहर रखा जाता है| ऐसे अनुभव किसी एक व्यक्ति से नहीं जुड़े होते, अपितु इनका सम्बन्ध प्रत्येक व्यक्ति के जीवन से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से है|   इन अनुभवों को ज्ञान की परिधि से बाहर रखने का कारण यह है कि हम ज्ञान को महज कुछ प्रमाण पत्रों से और स्कूल की दीवारों से जोड़ कर ही देखते हैं| जब ज्ञान की वैधता और अवैधता का अंतर केवल स्कूल और प्रमाण पत्रों पर निर्भर रहना छोड़ देगा, तब शायद हम ज्ञान के स्वरूप और उसकी प्रकृति पर एक अच्छी बहस करने के मंच पर होंगे|  लेकिन यह इतना सरल नहीं है|  शिक्षा जोकि ज्ञान का एक मात्र साधन बन चुका है, उसपर  प्रश्न चिह्न लगाना अपने आप में बहुत जटिल है|
शिक्षा, जिसे समरसता और एकजुटता का साधन बनना था, आज के समाज में वो भेदभाव का कारण बन चुकी है| कोई पढ़ा लिखा है, कोई अनपढ़ है, कोई अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा है, तो कोई हिंदी माध्यम से, किसी ने सरकारी स्कूल से पढाई की है, तो किसी ने महंगे प्राइवेट स्कूल से, ये सब इस भेदभाव के आयाम बन चुके हैं| अब यह मान लिया जाता है, जो अंग्रेजी माध्यम में महंगे प्राइवेट स्कूल से पढ़ा लिखा है, उसके पास ज्ञान ज्यादा होता है| इनके अलावा एक श्रेणी और भी है, जो कभी स्कूल ही नहीं जाते, इनमे अनुसूचित जाति-जनजाति, लड़कियां, गरीब व सामाजिक रूप से पिछड़े  या अल्पसंख्यक लोग शामिल है| इस तबके के लोगों को ज्ञान के श्रेत्र से बाहर ही माना जाता है| सामाजिक तौर पर पिछड़े लोगों और स्त्रियों की स्थिति किसी से छुपी नहीं है| उन्हें ज्ञान की परिधि से बाहर रखने की समस्या तब जन्म लेती है, जब उन्हें स्कूल से दूर रखा जाता है और यह मान लिया जाता है कि यदि वो स्कूल नहीं गए तो उनके पास ज्ञान नहीं होगा| एक दुसरे पहलू में  भारत में व्याप्त पितृसत्ता, जहाँ घर के सारे फैसले एक पुरुष या ‘मुखिया’ लेता है क्योंकि औरतों को इस लायक नहीं समझा जाता कि वो कोई फैसला ले सकती है| लेकिन जब ज्ञान को एक विस्तृत रूप में सामने रख कर देखे, तो हम पाते है कि  लड़कियां छोटी ही उम्र में रसोई और परिवार को सँभालने लगती है| इस समस्या का बीज इस बात में है कि हम किस काम को करने लायक समझते है और उसमें ज्ञान को कहाँ तक शामिल पाते है| शायद यही कारण है कि जब कोई लड़का खाना बनाता है, उसे पाँच सितारा होटल में शेफ बना दिया जाता है, उसका नाम होता है, परन्तु देश के हर घर में वही काम एक लड़की कर रही है तो उसे उसके कर्तव्य के रूप में देखा जाता है|
प्रमाण पत्र और स्कूल के नाम का ठप्पा किस प्रकार आपके ज्ञान को वैध और अवैध की श्रेणी में बांटता है| ज्ञान की इस खोजबीन में हम सामाजिक पहलुओं को ज्यादा महत्त्व देते है, यही कारण है कि हम ज्ञान को एक विस्तृत आधार पर नहीं देखना चाहते| कोई माता पिता नहीं चाहेगा कि उसका बच्चा सड़क पर नाच गाकर या करतब दिखा कर पैसा कमाए, लेकिन जब उसी काम को एक स्कूल में या किसी कोचिंग सेंटर पर सीखकर किसी मंच पर करता है, तो वो पल उसी माता पिता के लिए गर्व महसूस करने का पल बन जाता है| भारत में सामाजिक रूप से होने वाले भेदभाव से लोगों के जीवन में इस प्रकार फैला हुआ कि वो किसी वस्तु को एक निश्चित दृष्टिकोण से ही देखते है, उस दृष्टिकोण से हटकर देखने के अनुमति हमारा समाज हमे नहीं देता|
वैसे भी जिस ज्ञान की दुहाई ये समाज हमें देता है, वो ज्ञान किसी प्रकार की परीक्षा पर निर्भर करता है, वो परीक्षा जो कि कुछ राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों के अनुरूप ही चलती है| हाल ही में, बिहार में हुए टोपर विवाद में यह बात स्पष्ट होती है कि किस प्रकार स्कूल और उसके द्वारा दिया जाने वाला ज्ञान बस एक प्रकार की होड़ है, जिसमे हर कोई जीतना चाहता है| चाहे उसे उस ज्ञान का सही और वास्तविक अर्थ पता ही ना हो, चाहे उस ज्ञान को वो असल जीवन में शामिल कर ही ना पाए| बस एक लक्ष्य अधिक अंक प्राप्त करना ही सबके लिए महत्त्वपूर्ण बन जाता है| दिल्ली विश्वविधालय में दाखिले की प्रक्रिया में यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि अंको को यहाँ अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता और ज्ञान को हम केवल इसी के अनुरूप समझने का प्रयत्न करते है|
स्कूल का ज्ञान, जिसमे अध्यापक की भूमिका अहम हो जाती है, वो ज्ञान का केंद्र बन जाता है और पाठ्यपुस्तकें इस ज्ञान का एक मात्र स्त्रोत बन जाती हैं| ज्ञान को इतना संकुचित कर देना, हमारे विचारों और शिक्षा तंत्र पर बड़ा प्रश्न चिह्न लगाता है| जहाँ, एक तरफ हम प्रगतिशील और आधुनिक शिक्षा की बात करते है, वही हम उस ज्ञान को नकारने की भूल भी कर रहें हैं, जो बच्चा अपने जीवनं और अनुभवों से सीखता है| जबकि सरकारी दस्तावेज एंव विभिन्न आयोग व समितियां बच्चों को बाहर की दुनिया से जोड़ कर सीखाने पर और “करके सीखने” पर जोर देती है| यह प्रगतिशील विचार है, जिसका समर्थन बहुत शिक्षाशास्त्री करते हैं जिनमें टैगोर, गाँधी, डीवी आदि के नाम उल्लेखनीय है| अपने आप को प्रगतिशील व आधुनिक कहने वाले स्कूल भी इस बात को स्वीकार करते है, परन्तु सवाल यह है कि वो इस लक्ष्य को प्राप्त करने वो में कितना सफल हो पाते है ? अगर यही ज्ञान है तो एक अख़बार बेचने वाले का ज्ञान इस परिधि से बाहर क्यों है ? स्कूल आपके ज्ञान को स्वीकृति किन आधारों पर देता है ? यह भी प्रश्न है कि हम बच्चों को कौशल सीखाने की बात तो करते है परन्तु जब बच्चा उसी कौशल को घर और समाज में रहकर सीखता है, तो उसको अवैध घोषित कर दिया जाता है|
             


Monday, June 20, 2016

बारिश.....

बारिश.... हो रही है...
तो...
तो क्या ? हर चीज़ में 'तो' या 'क्यों' घुसाना... जरुरी नहीं है...
हाँ... पर ये बारिश कुछ अलग नही है ?
हाँ... अलग तो है, 20 जुलाई 2016 के दिन के पौने दो बजे की बारिश है ना? अलग होगी ही.... वो कहते है ना कि आप एक नदी में दो बार पैर नही रख सकते... क्योंकि अगली जो धारा आएगी, वो अलग होगी, वैसे ही ये बारिश भी अपने आप में खास है... समझे ?
हाँ... समझ गया...
क्या समझे ?
यही... कि हर बारिश में गरमा गर्म पकौड़े... मिले खाने को.... ये जरुरी नहीं...
हाँ... बिलकुल सही समझे....
वैसे तुम्हें... पकौड़ो की कमी के कारण ये बारिश अलग लग रही है ?
तुम्हें समझाना मेरे बस की बात नहीं है, ना इस बारिश की ऐसी औकात है, जो तुम्हें समझा सके.... और बेचारे पकौड़े, तो कुछ समझाने से पहले ही ख़त्म हो जाते है... तुम्ही कहती हो, कि कुछ चीजों को चुप रह कर समझना पड़ता है.... ये बारिश भी वैसी ही है.... इसीलिए आज कोई बहस नही...
मतलब समझा नही सकते ?
समझा नहीं सकता... बस यही कह सकता हूँ कि आपको हर बारिश भीगो दे.... ये जरुरी नहीं......

Saturday, June 18, 2016

मम्मी, माँ और अम्मी.... फॉर एन इंडियन डॉटर......

मेरी मम्मी.... तेरी अम्मी....
और उसकी माँ... अलग होकर
भी एक-सी क्यों है ?
मेरी मम्मी की रोटी... तेरी माँ की
बिरयानी और उसकी माँ की
दाल... अलग होकर भी एक
सा स्वाद क्यों देती है ?
मेरी मम्मी का सूट... तेरी अम्मी
का हिजाब और उसकी माँ
की साड़ी... अलग है, पर इन
सब में वो एक सी क्यों दिखती है ?
सोच रही हूँ, हमारे देश में,
सब माएं एक सी क्यों होती है.....

मनीष

रास्तों से दोस्ती....

दोस्त ने पूछा कि रोज उसी रास्ते से घर जाने से बोर नही होते? कभी रास्ते भी बदल लिया करो..... तब तो ये बात हँसी में टाल दी, पर बाद में, इसके बारे में सोचता रहा कि पुरानी राहों से दोस्ती क्यूँ हो जाती है ? ये रास्ते कौनसा से हमसे हमारा हाल चाल पूछते है और कौन सा ये हमें ठोकर लगने से बचा लेते है? पर क्या सही में पुराने रास्ते या गलियां हमारे दिल में कुछ खास नही बन जाते? जाने-अनजाने में हमारी दोस्ती उन रास्तों की हर एक चीज़ से हो जाती है, जो उस रोज़ाना के रास्ते में हमसे मिलती है| सामने वाले घर की बेरंग हो चुकी, वो दीवार उस घर के भीतर के हाल भी बता देती है| अगर वो सब्जी वाला देर रात तक भी वही मोड़ पे खड़ा है, तो पता चल जाता है, कि उसकी सब्जी अभी बिकी नही है और वो अभी भी इस विश्वास के साथ खड़ा है, कि अपना सारा माल बेच कर जायेगा| मंदिर के सामने की भीड़ से मंगलवार और शनिवार का पता चल जाता है| मंदिर के बाहर अगर वो छोटी लड़की फूल बेचती है, तो बिना उससे पूछे पता चल जाता है कि उसकी माँ फिर से बीमार है और उसने फिर स्कूल से छुट्टी ली है| वो एटीएम के पास का सिक्योरिटी गार्ड रोज दुआ सलाम कर लेता है... रास्ता तो फिर भी बात नही करता पर इन सभी गतिविधियों में ये रास्ता ही है, जो मुझे इन सब पहलुओं से जोड़ता है.....
सबसे बात हो जाती है, इस रास्ते से रोज आने जाने से... अगर रास्ता बदलता हूँ, तो चुप चाप ही घर पहुंचना पड़ेगा......

तस्वीर के मायने....

ग़र एक तस्वीर... देखकर, आपका मन किसी के लिए... सैकड़ों या हजारों शब्द लिखने का करे या फिर एक पूरी किताब लिख देने के लिए... आपके हाथ कलम और पन्ने खोजने लगे, तो ये सोचिये... कि उस चेहरे को हकीक़त में देख लेंगें तो कितने उपन्यास छाप डालेंगे? लेकिन सच इस से अलग होता है, लिखने का मन होता है, पर आप मुश्किल से दस या बीस ही शब्द ढूँढ पाते है| इसमें आपकी दक्षता या क्षमता पर सवाल नही उठता... बस... आपको इतना मान लेना होगा, कि जिसके बारे में आप लिखना चाहते है, उसे शब्दों में बयां नही किया जा सकता| उसके लिए शब्द मिलते ही नहीं हैं........

रात से काली जुल्फ़े... तेरी है, नजरों में जैसे एक दुनिया बसी है...
आँसू भी हँस दे, मिलकर तुझसे... इतनी प्यारी तेरी हँसी है....

तेरे सपनो की चाह.....

दिन का ढल जाना और रात के दस्तक.... बस ये दो ही वजह नहीं है, सोने की, दुनिया का दस्तूर भी एक अलग कहानी है... दरअसल, तेरे सपने देखने की चाह नींद को खींच लाती है| तेरी यादें... चादर सी ढाप लेती है, तेरे एहसासों के तकिये पे सर रखते ही, आँखें कुबलाने लगती है... गर्मी हो, तो तेर चेहरा, छत पे यूँ पंखे सा घूमता दिखाई देता है, कि हवा में खुद ब खुद एक ठंडक दौड़ जाती है और अगर सर्दी हो, तो... अह्ह्ह... इस पंखे को बंद कर देता हूँ| एक बात और, तेरे इन सपनों की.... दुनिया में जाने से पहले सोचता हूँ, कि तुझे वो बात कह दूंगा, जो हकीक़त में.... तेरे सामने नहीं बोल पाता... पर वो बात उन ख्वाबों में भी मुझ तक ही रहती है.....